मैत्री में मोर / श्रीप्रकाश शुक्ल
विभाग की दीवार को फलांगता
मोर जब उसके मुड़ेर पर बैठा
तब हम कुछ मित्र
जिसमे बहुतों में आशीष, विनोद व रामाज्ञा भी थे
मैत्री जलपान गृ्ह में बैठे
एक तरफ चाय की चुसकियाँ ले रहे थे
दूसरी तरफ मोर को निहार रहे थे
मोर था कि सीढ़ी दर सीढ़ी हमारे सपने की तरह उछल रहा था
एक-एक कर वह हमारी नज़र से ऊपर उठता जा रहा था
और थोड़ी ही देर में स्थिति यह थी
की वह छत पर था
और हम सभी जन
अपनी तनी गरदन के साथ
उसके पीछे हो लिए थे
जैसे हम मोर थे
मोर एक राष्ट्रीय पक्षी है
यह करीब-करीब कौतूहल से बात उठी
फिर बात इस बात पर आ गई
कि इसमें राष्ट्रीयता कहाँ पर है
और स्थिति यह थी कि इस बात को आगे बढ़ते
इतना वक़्त बीत गया
कि बात इस बात पर टिक गई
कि इस राष्ट्रीयता का रंग
आखिरकार नीला क्यों है !
कुछ मित्र इस नीले रंग की व्याख्या काशी की परम्परा से कर रहे थे
तो कुछ हिन्दी विभाग की परम्परा से
कुछ का कहना था कि नीला रंग हमारी अस्मिता का प्रतीक है
कुछ इस बात पर अड़े थे हर महान चीज़ों का रंग नीला होता है
मसलन यह कि कृष्ण नीले थे
राम नीले थे
बुद्ध ओैर गांधी तो थे ही्
कुछ के पास तो यहाँ तक तर्क था
कि स्वयं काशी का रंग नीला है
गंगा व गणेश का तो यूँ ही नीला है
धीरे-धीरे मोर हमारी बहस से गायब होता गया
और एक दिन अचानक जब हम वहीं चार जन
विभाग के अंदर घुसे
तो वही मोर विभाग की कुर्सी पर औंधा पड़ा था
अपनी सम्पूर्ण परम्परा को अपने डैनों में समेटे
यह एक जून के आखिरी दिनों का आखिरी वक़्त था
जो हमारी आखिरी नज़र से आखिरी बार गुज़रा था
जिसमें कुर्सी की आखिरी बेचैनी थी
और विभाग से सटा आखिरी पेड़
अपने सभी आखिरी संतापों के साथ आखिरी बार फड़फड़ा रहा था !