भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घुरफेकन लोहार / श्रीप्रकाश शुक्ल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:08, 21 अप्रैल 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीप्रकाश शुक्ल }} <poem> अपने कंघे पर टँगारी को ला...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपने कंघे पर टँगारी को लादे जाता घुरफेकन लोहार
हमारे लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण नागरिक है
जब वह चलता हैं
हमारे लोकतंत्र का सबसे सजग पात्र चल रहा होता है
जिसकी टाँगो व टंगो में अदभुत लोच है

उसकी टंगारी से आती आवाज़
हमारे लोकतंत्र से आती आाखिरी आवाज़ है
जिसे सिर्फ़ वह जानता है

कितनी रातों से लादा है उसने इस टंगारी को
कितनी शामें गज़ारी हैं इसके नीचे
कितने जंगल में कितनी बार
इसने बसाई हैं बस्तियाँ
यह और सिर्फ़ यह घुरफेकन जानता है

यह खटिया के चूर का हिस्सा है
घर की थूनी व थम्भा है
लगातार खुलते व बंद होते दरवाज़े का चौखठ है

जब कभी इस चौखठ में घुन लगता है
धुरफेकन हो जाता है उदास
टँगारी से उठती है एक आवाज़

यह लोहे की नहीं
हड्डी की आवाज़ है