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रंग / ऋषभ देव शर्मा

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रंग
तरह-तरह के रंग
आ जाते हैं जाने कहाँ से
सृष्टि में
दृष्टि में
चित्रों, सपनों और कविताओं में?


अँधेरे के गर्भ में
कौन बो जाता है
रोशनी के बीज?
फूट पड़ती है -
दिशाओं को लीपती हुई
किसी सूर्यपुत्र की
दूधों-नहाई
अबोध श्वेत हँसी।


तैरता है श्वेत कमल
गंगा के जल में
होती हैं परावर्तित
किरणें.......
किरणें.......
और किरणें।


शीतल जल की फुहारों में
नहाती हैं श्वेतवसना
अप्सराएँ
और श्वेत प्रकाश की धार
ढल जाती है
सात रंग के इंद्रधनुष में।
गूँजने लगता है
सात सुरों का संगीत
गंगा से यमुना तक,
हस्तिनापुर से
         वृंदावन तक।
संगीत
खेलता है
चाँदनी से आँख मिचौनी
और रंग थिरक उठते हैं
रासलीला के उल्लास में,
सृष्टि में बिखर जाते है अमित रंग
राधिका की
खंडित पायल के
         घुँघरुओं के साथ।
दृष्टि में खिल उठते हैं
फूल ही फूल
         रंग बिरंगे
और चिपक जाते हैं
         मन के चित्रपट पर।


घुलते चले जाते हैं....
घुलते चले जाते हैं....
हमारे अस्तित्व में रंग
और फिर
हौले से
आ जाते हैं सपनों में,
सताते है प्राणों को,
हो जाते हैं विलीन
छूने को बढ़ते ही।
टूटते हैं स्वप्न,
कलपती है उँगलियाँ,
तरसते हैं पोर-पोर
छूने को रंग;
सपनों के रंग!


सपनों के रंग
विलीन जब होते हैं,
तड़पता है आदमी
खोजता है इंद्रधनुष,
         इंद्रधनुष नहीं मिलते।
नहीं मिलते इंद्रधनुष,
उठाता है धनुषबाण,
रचता है महाभारत
         रंगों की खोज में।


रंग पर, नहीं मिलते।
इंद्रधनुष नहीं मिलते।
मिलता है युद्धों से
अँधेरा...
अँधेरा........
         घोर अँधेरा।


अँधेरों में फिर से
सूर्य की किरणें
बोती है कविता।
कविता ही प्रकृति है,
कविता उल्लास है,
रंगों का स्रोत है।


अँधेरे के गर्भ में
रोपती है कविता
रोशनी के बीज को,
रंगों के बीज को।


कविता ही सूर्य है,
दुधमुँहा सूर्यपुत्र!
सूर्यमुखी कविताएँ
रंगों को जनती हैं!


आओ!
हम सब....
सारे अक्षर
मिलकर सूर्यमुखी हो जाएँ,
रागों को उपजाएँ,
रंगों को बरसाएँ,
इंद्रधनुष के सात रंग से
रँग दें
सृष्टि को,
दृष्टि को,
चित्रों, सपनों और
         कविताओं को।
!