भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खिसक गयी है धूप / अज्ञेय

Kavita Kosh से
हेमंत जोशी (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:44, 25 अप्रैल 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: पैताने से धीरे-धीरे खिसक गयी है धूप। सिरहाने रखे हैं पीले गुलाब। ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


पैताने से धीरे-धीरे खिसक गयी है धूप। सिरहाने रखे हैं पीले गुलाब।

क्या नहीं तुम्हें भी दिखा इनका जोड़- दर्द तुम में भी उभरा?