तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उस का ख़ुदा नहीं
बस सर बसर अज़ीयत-ओ-आज़ार ही रहो
बेज़ार हो गई हो बहुत ज़िन्दगी से तुम
जब बस में कुछ नहीं है तो बेज़ार ही रहो
तुम को यहाँ के साया-ए-परतौ से क्या ग़रज़
तुम अपने हक़ में बीच की दीवार ही रहो
मैं इब्तदा-ए-इश्क़ में बेमहर ही रहा
तुम इन्तहा-ए-इश्क़ का मियार ही रहो
तुम ख़ून थूकती हो ये सुन कर ख़ुशी हुई
इस रंग इस अदा में भी पुरकार ही रहो
मैं ने ये कब कहा था के मुहब्बत में है नजात
मैं ने ये कब कहा था के वफ़दार ही रहो
अपनी मता-ए-नाज़ लुटा कर मेरे लिये
बाज़ार-ए-इल्तफ़ात में नादार ही रहो