आज सुबह है कि एक प्रतिज्ञा है
दिनों की सालों की जकड़न फेंक रहा हूँ
आज सुबह है कि पौधे रोपने लगा हूँ
मिट्टी पानी बना हूँ सींचने लगा हूँ
आज आवाज़ें सुनने लगा हूँ
यह जो ठकाठक सुन रहा ये छेनियाँ और हथौड़े हैं
सुबह से भी पहले सुबह होती है उनकी
मेरे जगने तक ठक-ठक ठकाठक चल रहे होते हैं
हर ओर कुछ बन रहा, हो रहा निर्माण
आज सुबह है कि चिढ़ नहीं रहा
आवाज़ों को सँजो रहा हूँ
सों-सों की आवाज़ें हैं बसों की ट्रकों की
थोड़ी ही दूर है सड़क
निंदियाई होंगी आँखें ड्राइवरों की अब भी
मलते हुए आँखों को रेस में लगे हैं
आज सुबह है कि सब को सब कुछ मुआफ है
मैं अपनी ही क़ैद से कर रहा हूँ मुक्त खुद को
ज़मीं से ऊपर नहीं ठोस फर्श पर रख पैर
रच रहा हूँ शब्द।