Last modified on 4 मई 2009, at 23:24

जीने की कला / नरेश चंद्रकर

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:24, 4 मई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेश चंद्रकर |संग्रह=बातचीत की उड़ती धूल में / न...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

देखने को
इस तरह मानते रहें जैसे
देखना कोई पाप हो

बचते रहें आसपास से
कि कोई सचमुच में न दिख जाए

आँखों से झगड़ते-झगड़ते
आख़िर आपकी आत्मा कूद पड़ेगी एक इन
हरे जल की सूनी बावड़ी में

तब फिर आप
पेट बज़ाकर भीख मांगते बच्चों को देखकर
आराम से आईसक्रीम खा सकते हो!