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रात बेहद चुप है / मुनीर नियाज़ी

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रात बेहद चुप है
और उस का अन्धेरा सुर्मगीं
शाम पड़ते ही दमकते थे जो रंगों के नगीं
दूर तक भी अब कहीं
उस का निशां मिलता नहीं

अब तो बढ़ता आयेगा
घन्घोर बादल चाह का
उस में बहती आयेगी
एक मद्भरी मीठी सदा
दिल के सूने शहर में गूँजेगा नग़्मा चाह का

रात के पर्दे में छुप कर ख़ूँ रुलाती चाहतो
इस क़दर क्यों दूर हो
मुझ से ज़रा ये तो कहो
मेरे पास आकर कभी मेरी कहानी भी सुनो
सिस्कियाँ लेती हवायें कह रही हैं-'चुप रहो'