भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्या ज़रूरत दियासलाई की / विजय वाते

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:24, 11 मई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय वाते |संग्रह= दो मिसरे / विजय वाते }} <poem> फिक्र ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फिक्र हमको थी जगहँसाई की।
वरना क्या बात थी ज़ुदाई की।

उसकी आँखों से नीन्द रूठी है,
उसने मुझसे जो बेवफ़ाई की।

एक तक़रीर सिर्फ काफ़ी है,
क्या ज़रूरत दियासलाई की।

तितलियाँ लद गई है रिक्शों पर,
पहली तारीख है जुलाई की।

फिर मिलेंगे 'विजय' ये मत कहना,
पीर झीलती नहीं ज़ुदाई की।