भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
औरत को जमाने ने / तेजेन्द्र शर्मा
Kavita Kosh से
औरत को ज़माने ने बस जिस्म ही माना है
क्या दर्द उसके दिलका कोई नहीं जाना है
बाज़ार में बिकती है घरबार में पिसती है
दिन में उसे दुत्कारें, बस रात को पाना है
मां बाप सदा कहते, धन बेटी पराया है
कुछ साल यहां रहके, घर दूजे ही जाना है
इक उम्र गुज़र जाती, संग उसके जो शौहर है
सहने हैं ज़ुलम उसके, जीवन जो बिताना है
बंटती कभी पांचों में, चौथी कभी ख़ुद होती
यह चीज़ ही रहती है, इन्सान का बाना है
बन जाती कभी खेती, हो जाती सती भी है
उसकी न चले मर्ज़ी बस इतना फ़साना है