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मुक्ति चित्र / विजय गौड़

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चार मंज़िला इमारतों में
शाम के वक़्त
एकदम छोटे बच्चे
काम से लौटते पिता का
इंतज़ार करते हुए
झूल रहे होगें
बॉलकनी की रैलिंग में,
पत्नियों के जूड़े से
बिखर रही होगी
चमेली के फूल की
भीनी-भीनी महक
आँखों में काजल के डोरे
ओठों पर बिखरा हुआ सुर्ख़ लाल रंग
गुलाब की पंखुड़ियों का
अहसास दिलाएगा
 
एक हाथ जूड़े पर
दूसरा कोहनी के सहारे
रैलिंग की दीवार पर,
ठुड्डी को टिकाए
दूर तक ताक रही होगीं
नव-विवाहिताएँ,
किसी दूसरे क्वार्टर की खिड़की से
ताक रही हो सकती हैं
जवाँ होती पुरुष निगाहें,
इस बात से बेख़बर
वें अपनी उंगलियों को
 
भीतर ही भीतर
उठते संगीत के साथ
थिरकाती हुई भी हो सकती हैं मगन
 
यह किसी बड़े बाज़ार की दुनिया का
विज्ञापनी चित्र नहीं
हाँ, टीवी पर देखे गए
तमाम विज्ञापनों का
एक कोलाज ज़रूर उभरेगा,
तालाब में तैरती
मछली की तरह
चिपट-पोशाक पहनी लड़की की मुस्कराहट भरा
 
आपको भी यदि ऐसा ही दिखाई दे
तो इसमें तुम्हारा कसूर नहीं,
यह मेरे ही कैमरे की आँख है
जो हो गई है हिस्सा बाज़ार का
वरना, यह तो तय बात है
कि सदियों से
दासता की जंज़ीर में जकड़ी हुई
लड़की की मुक्ति
बॉलकनी से झाँकने भर की
छूट दे देने से नहीं होगी।