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हसीन-तर / अली सरदार जाफ़री

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हसीनतर
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कल एक तू होगी और इक मैं
कोई रक़ीबे-रफ़ीक़-सूरत१
कोई रफ़ीक़े-रक़ीब सामाँ
मिरे तेर दरमियाँ न होगा

हमारी उम्रे-रवाँ की शबनम
तेरी सियह काकुलों की रातों
में तार चाँदी के गूँध देगी
तिरे हसीं आ़रिज़ों२ के रंगीं
गुलाब-बेले के फूल होंगे
शफ़क़ का हर रंग ग़र्क़ होगा
लतीफ़ो-पुरकैफ़ चाँदनी में

तिरी किताबे-रुखे़-जवाँ पर
कि जो ग़ज़ल की किताब है अब
ज़माना लिखेगा एक कहानी
और अनगिनत झुर्रियों के अन्दर
मिरी महब्बत के सारे बोसे
हज़ार लब बन के हँस पड़ेंगे

हम अपनी बीती हुई शबों की
सलोनी परछाइयों को लेकर
हम अपने अहदे-तरब की शामो-
सहर की रानाइयों को लेकर
पुरानी यादों के जिस्मे-उर्यां३
के वास्ते पैरहन बुनेंगे

फिर एक तू होगी और इक मैं
कोई रक़ीबे-रफ़ीक़-सूरत
कोई रफ़ीक़े-रक़ीब सामाँ
मिरे तेर दरमियाँ न होगा
हवस की नज़रों को तेरे रुख़ पर
जमाले-नौ का गुमाँ न होगा
फ़क़त मिरी हुस्न-आज़मूदा-
नज़र४ यह तुझको बता सकेगी
कि तेरी पीरी५ का हुस्न तेरे
शबाब से भी हसीनतर है



१.मित्र समान दुश्मन २.कपोल ३.नग्न शरीर ४.हुस्न की आज़माई हुई नज़र[हुस्न आज़मूदा नज़र को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए] ५.वृद्धावस्था।