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सप्ताह की कविता
शीर्षक: कविजन खोज रहे अमराई
रचनाकार: अष्टभुजा शुक्ल
कविजन खोज रहे अमराई । जनता मरे , मिटे या डूबे इनने ख्याति कमाई ॥ शब्दों का माठा मथ-मथकर कविता को खट्टाते । और प्रशंसा के मक्खन कवि चाट-चाट रह जाते ॥ सोख रहीं गहरी मुषकैलें, डांड़ हो रहा पानी । गेहूं के पौधे मुरझाते , हैं अधबीच जवानी ॥ बचा-खुचा भी चर लेते हैं , नीलगाय के झुंड । ऊपर से हगनी-मुतनी में , खेत बन रहे कुंड ॥ कुहरे में रोता है सूरज केवल आंसू-आंसू । कविजन उसे रक्त कह-कहकर लिखते कविता धांसू ॥ बाली सरक रही सपने में , है बंहोर के नीचे । लगे गुदगुदी मानो हमने रति की चोली फींचे ॥ जागो तो सिर धुन पछताओ , हाय-हाय कर चीखो । अष्टभुजा पद क्यों करते हो कविता करना सीखो ॥