भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दौलत-ए-दुनिया का हिसाब / अली सरदार जाफ़री

Kavita Kosh से
चंद्र मौलेश्वर (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:40, 27 मई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अली सरदार जाफ़री }} <poem> '''दौलत-ए-दुनिया का हिसाब''' त...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दौलत-ए-दुनिया का हिसाब

तुम कि हो मुहतसिबे-सीमो-ज़रो-लालःओ-गुहर<ref>हीरे-मोती और सोने-चाँदी का हिसाब रखने वाले</ref>
हमसे क्या माँगते हो दौलत-ए-दुनिया का हिसाब
चन्द तस्वीरे-बुताँ चन्द हसीनों के ख़ुतूत
चन्द नाकर्दा गुनाहों के सुलगते हुए ख़्वाब

हाँ, मगर अपनी फ़क़ीरी में गनी हैं हम लोग
दौलते-दर्दे-दिलो-दर्दे-जिगर रखते हैं
खु़श्किए-लब है तो क्या, दीदःए-तर रखते हैं
अपने क़ब्ज़े में नहीं अतलस-ओ-संजाब-ओ-सुमूर<ref>मूल्यवान वस्त्र</ref>
जिस्म पर पैरहने-शम्सो-क़मर रखते हैं
घर तो रौशन नहीं अल्मास के फ़ानूसों से
कस्र-ओ-ऐवाँ<ref>महल और प्रसाद</ref> पे जो बरसे वो शरर रखते हैं
जो ज़माने को बदल दे वो नज़र रखते हैं

इस ख़ज़ाने में से जो चाहो उठा ले जाओ
और बढ़ जाता है यह माल जो कम होता है
हम पे तो रोज़ ज़माने का करम होता है
शाखे़-गुल बनता है जब हाथ क़लम होता है।

शब्दार्थ
<references/>