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लाज बिलोकन देत नहीँ रतिराज / तोष
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लाज बिलोकन देत नहीँ रतिराज बिलोकन ही की दई मति ।
लाज कहै मिलिये न कहूँ रतिराज कहै हित सोँ मिलिये यति ।
लाजहु की रतिराजहु की कहै तोष कछू कहि जात नहीँ गति ।
लाल निहारिये सौँह कहौँ वह बाल भई है दुराज की रैयति ।
तोष का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।