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स्वप्न के बुनकर / कविता वाचक्नवी

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स्वप्न के बुनकर

स्वप्न के बुनकर!
तुम्हारे
पोरवों के स्पर्श से
कुछ फूल उभरे थे
गलीचे पर
रँगीली डोरियों से,
आर जाती
पार जाती
रेशमी कोमल सजीली
चाहतों के,
वे बसे थे जो
तुम्हारी पलक पीछे
सूक्ष्मधर्मी
हो उठे साकार
इक-इक कर
सुनहले।

सज गए वे फूल
धरती के हृदय पर
एक दिन
ले रंग अपने
ढाँपते सब खुरदुरे
संस्पर्श उसके
आवरण-सा ओढ़
ओढ़े ओढ़नी
सिमटी ढकी-सी थी
धरा भी,
जानती थी
फूल ये
अपने नहीं है।