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बीच अधर में / कविता वाचक्नवी

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बीच अधर में


खिड़की
पट
द्वार
रोशनदान
झरोखे
खुल गए समझते हो?

कौन जाने?
पहले भीतरी हवा
बाहर जाएगी
या
बाहर की भीतर आएगी?
धूप आएगी
या
शीत जाएगा?

हवा........?
कुछ उड़ा न ले जाए,
यादों की गंध
[जैसी भी सही]
रच-बस गई है
नहीं छूटती।
डर और भी हैं
हवा से,
कहीं उड़ाने लगी तो
धूल ही धूल भर जाएगी
भीतर तहाई
गर्द की परतों की।

धूप.......?
डर लगता है
चौंध से
तपन से।
पाना / देखना
चाहा तो था आकाश
पूरा नीला, खरा नीला
थोड़ी मही
गहरी हरी, सारी हरी।
किंतु
खिड़की
पट
द्वार रोशनदान
झरोखे खोलने(?) से भी
धरती की हरियावल नहीं दीखती
पसटने को टुकडा भर नहीं।
आकाश........?
दीखता तो है
पर
टुकड़ा भर,
बँटा हुआ
आत्मा के जाने कितने टुकड़ों में।
आकाश! शून्य!
क्यों तुम शून्य के भी खंड हो सकते हो
परमाणू में बँट सकते हो?
अब?
अंधेरा और ठहराव
तथा / या
(शून्य)
प्रकाश और गति
और मैं
बराबर
त्रिशंकु.....?