भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तरतीब / गिरधर राठी
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:35, 24 जून 2009 का अवतरण
थोड़ा-सा वक़्त और चाहिए
और हालाँकि बन्द कर दिए गए हैं सभी दरवाज़े
झरोखे और सूराख़ लेकिन
यह जो बची-खुची रौशनी है इस कोठरी में
इस में तरतीब लाना कठिन है दरअसल
कठिन है अपने हाथ-पैर हिलाना भी क्योंकि
यह जो ढेर है हड्डियों का और लिसलिसा ख़ून
है मवाद है इसमें
कई फूल हैं ख़ुशबुएँ हैं चुम्बन हैं
रोगाणुओं के बीच भी सेहत और रौनक़
है इंसानी जिस्मों की कई-कई रंगों के केश हैं
लगभग सतरंगी नज़्ज़ारा है गो
बदबू है जहाँ ख़ुशबू है रंग है रौनक़ है
चुप्पी में ज़रा देर
ठहरो
मोहलत दो मुझे और
चाहिए कुछ
और
कुछ और
और वक़्त चाहिए थोड़ा-सा