कदली-वृक्ष तुम्हें फुसलाने के लिए गढ़े गए थे
जांघें दरअसल जांघों की तरह थीं
सोते-जागते देखी अनगिनत जांघों की तरह
मुरली नहीं कोयल नहीं कल-कल भी नहीं
या ये सब भी मगर सुरीले सुर
दूसरी सुराही-सी गर्दन से गले से
निकले सुरों से पहचानता तुम्हारा सुर
नख-सिर नहीं, सिर से नख भी नहीं
कोई क्रम नहीं
सहसा नज़र आया तुम्हारा शरीर
उसी के भीतर से झाँकते
अनगिनत तन
खिंचा चला आया मैं
मेरे सब ’मैं’ ले कर
हिरन नहीं, मानुषी
नयन नयन-कोर पलक
पलकों में उतराती-डूबतीं असंख्य पलक
देखे उक़ाब भी देखे बटमार
होंठों ने होंठों को होंठों से पहचाना
हँसी को हँसियों से
जीभ को जीभों से
गोद को अनदेखी गोदों ने पहचाना
पहली नज़र में जो प्यार हुआ
प्यार था
पहचाना किए हुए अनकिए प्यारों से