बात तो कुछ भी नहीं / ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'
बात तो कुछ भी नहीं फिर
मन अकारण खिन्न क्यों है !
राह में रोशनी है, और मंज़िल पर दिवाली
सामने बाज़ार बिखरा, जेब भी अपनी न खाली
आहटों की हाट में, हूँ मैं न विक्रेता न क्रेता
शब्द के व्यापार में, मन मौन की करता दलाली
क्या हुआ यह आज का दिन
सब दिनों, से भिन्न क्यों है !
मन-पटल पर कौधती हैं इन्द्रधनुषी कल्पनाएँ
और गत-यौवन हुइंर् अब तक न मन की वासनाएँ
मैं वही हूँ भोर-रैन वही, जल थल गगन है जग रहा मैं, सो गईं कैसे सकल संवेदनाएँ
आज बोतल से व्यथा का
निकल आया जिन्न क्यों है !
लग रहा है तृप्ति को अब ऊब सी होने लगी है
और यह मधु-यामिनी बस चन्द्र घड़ियों की सागी है
प्रीति धन सम्मान बल वैभव सभी तन पर लपेटे
मन विकल है, प्राण की हर पोर पीड़ा में पागी है
आज हर विश्वास, आस्था
चेतना से छिन्न क्यों हैं !