Last modified on 2 जुलाई 2009, at 19:36

शिशिर न फिर गिरि वन में / मैथिलीशरण गुप्त

Pramendra (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:36, 2 जुलाई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: शिशिर न फिर गिरि वन में जितना माँगे पतझड़ दूँगी मैं इस निज नंदन मे...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

शिशिर न फिर गिरि वन में

जितना माँगे पतझड़ दूँगी मैं इस निज नंदन में

कितना कंपन तुझे चाहिए ले मेरे इस तन में

सखी कह रही पांडुरता का क्या अभाव आनन में

वीर जमा दे नयन नीर यदि तू मानस भाजन में

तो मोती-सा मैं अकिंचना रक्खूँ उसको मन में

हँसी गई रो भी न सकूँ मैं अपने इस जीवन में

तो उत्कंठा है देखूँ फिर क्या हो भाव भुवन में।