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सौ-सौ सूरज / किरण मल्होत्रा
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रात के
गहन अंधेरे में
सूरज
अपना वादा
तोड़कर
चांद को
यूँ अकेला
छोड़कर
चल दिया
नज़र के
आसमान से दूर
देखता रहा
चांद
उसके मिटते
निशान को
हर पल
मद्धम हो रहे
उसके प्रकाश को
उसके हर
क़दम के साथ
उसने
एक उम्मीद बांधी
अपने प्रेम की
बेड़ी के साथ
उसके
क़दमों के नीचे
सपनों की नींव डाली
वो कदम
तो नहीं लौटे
जो उस रात
नहीं रूके थे
लेकिन
सपनों के बीजों से
एक घना पेड़
उग आया
जिस पर
एक नहीं
सौ-सौ सूरज उगे थे