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नानी / के० सच्चिदानंदन

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पागल थी मेरी नानी
उसका पागलपन पका मृत्यु में

मेरे कंजूस मामा ने उसे रख दिया सामान की कोठरी में
घास से ढँककर
सूखती गई नानी, चटखी बीजों में और खिड़की के बाहर छितरा गई

एक बीज उगा और हुआ मेरी माँ
धूप और बारिश आते-जाते रहे
माँ के पागलपन से उपजा मैं

अब मैं कैसे बच सकता हूँ कविता लिखने से
सुनहरे दाँतों वाले
बन्दरों के बारे में।


अनुवाद : राजेन्द्र धोड़पकर