भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इन्सान / रमानाथ अवस्थी

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:06, 28 जुलाई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमानाथ अवस्थी }} <poem> मैंने तोडा फूल, किसी ने कहा- फ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने तोडा फूल, किसी ने कहा-
फूल की तरह जियो औ मरो
सदा इंसान।

भूलकर वसुधा का शृंगार,
सेज पर सोया जब संसार,
दीप कुछ कहे बिना ही जला-
रातभर तम पी-पीकर पला-
दीप को देख, भर गए नयन
उसी क्षण-
बुझा दिया जब दीप, किसी ने कहा
दीप की तरह जलो, तम हरो
सदा इंसान।

रात से कहने मन की बात,
चंद्रमा जागा सारी रात,
भूमि की सूनी डगर निहार,
डाल आंसू चुपके दो-चार

डूबने लगे नखत बेहाल
उसी क्षण-
छिपा गगन में चांद, किसी ने कहा-
चांद की तरह, जलन तुम हरो
सदा इंसान।

सांस-सी दुर्बल लहरें देख,
पवन ने लिखा जलद को लेख,
पपीहा की प्यासी आवाज,
हिलाने लगी इंद्र का राज,

धरा का कण्ठ सींचने हेतु
उसी क्षण -
बरसे झुक-झुक मेघ, किसी ने कहा-
मेघ की तरह प्यास तुम हरो
सदा इंसान।