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मन की गांठ / किशोर काबरा

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कवि: किशोर काबरा

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मन की गांठ नहीं खुलती है गुरूडम के गलियारे में,

उसे खोलना है तो आओ अन्तर के उजियारे में।


तीन गुणों को सांप समझकर अब तक भाग रहे थे तुम,

दीपक एक जलाया होता चेतन के चौबारे में।


माया के परदे में छिपकर सबको नाच नचाता जो,

नहीं मिलेगा वह मंदिर में, मस्ंजिद में, गुरूद्वारे में।


हीरे, मोती, जरतारे में नहीं लगेगा मन मेरा,

वह तो भैया, डूब गया है मीरा के इकतारे में।


जीवन डूब रहा पश्चिम में, मौत झांकती पूरब से,

कब तक सोया पड़ा रहेगा मूरख, इस भिनसारे में?