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मैं ख़बरदार हूँ / ओमप्रकाश सारस्वत

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भोर की पहली किरण के साथ
मैं विगला
बढ़ा साया हूँ मेरा
जैसे आदि काल की
पहली शुभशंसा बढ़ी हो

पर हुआ मध्याह्न
मैंने निज में निज को समेटा
अपनेपन से यूँ लपेटा
कि मेरे समूचे व्यक्तित्व का
अंतः वाह्य एक हो गया तब
मैं यथार्थ हो गया तब

किंतु ढलते ही साँझ
मेरी तनुता का साया उल्टी रील-सा
यूँ भागा पीछे को
जैसे शुभ प्रभात की
दिव्य किरण का मंगेतर हो

किंतु तब मेरे मन की आँखों पर
जाला उग आया था
तब मुझे घुंधलके ने
वापिस कर दिया
किंतु अब मैं देख रहा हूँ
ढलती साँझ के छज्जे से
उस वृक्ष को
जो विश्व उपवन में
किसी की दया पर उगा था
माली को वन्दना-सा झुका था
दोपहर को निज में आत्मस्थ हो

खूब झूमा था
जिसने नियंता के महत्व को चूमा था
अब होते ही साँझ उसकी छाया पापकाया सी उससे
शतबार बड़ी हो
सुरसा-सी लीलने जा रही है
माली के उपकार को

और डालियाँ जो भोर में कलरव-युता थीं
अब धूत्कारती हैं
और उनकी यह धूत्कार
सृष्टि की सारी संज्ञा को ही निगल जाने को
समुद्यत है
अतः अब इसी में
प्रातः की शुभशंसा
मध्याह्न का यथार्थ और
सांध्य का विपरिणाम
सब समा जायेंगे और बचेगा
यही एक प्रभाविष्णु
केवल धूत्कार
केवल धूत्कार
क्योंकि यह सहस्रभुज
विश्वबल
सबके सठिया जाने पर
जवां होता है

किंतु अब मैं देख रहा हूँ ठगियाया-सा
सोच रहा हूँ भावी कल की बात ;
कि मेरे पास केवल रात के विस्तार का परिणाम बाकी है
तो भी मैं खबरदार हूँ