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आत्मा / ओमप्रकाश सारस्वत

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यह आत्मा___
बिल्कुल उसी पंछी की भांति
चोग के लालच में आए
हो गये झट कैद पिंजरे में पड़ी सी
सिसकती
रोती है,

देती है दुहाई
मैं भी भूले से मुमुक्षु की ही
एकदम न तैक भी सोचे-विचारे
मानव नहीं दानव के इस कुशरीर रूपी पिंजरे में-
आ पड़ी हूँ
मैं फँसी हूँ

मैंने कई बारी महापुरुषों,जनों-साधुजनों को
मुँह से कहते सुना कि यह देह-निःसन्देह
इस-आत्मा गमन से ऊपर उठाकर य्आ बचाकर,
उस अनंत अमन्द महात्मा से
संयुक्ति कराती
यह मिलाती

पर ज्यों देखा इस देह के छल को छद्म को
रागता-अनुरागता से भरी इस अकी भयावह विषमता को
तो जड़ता के चक्कर में पड़ी जाती हूँ
पाती हूँ मैं निज को
वन्दिनी,दुखिया अशांति से घिरी सी
हड्डियों के निन्द्य-नीरव-स्तूप में एकाकिनी-सी,
फा फिर एक वियोगिनी सी
छटपटाती हूँ
न जाती हूँ कहीं पर भी
जलाती हूँ स्वयँ को

अब तो मेरी एक ही इच्छा है
अंतिम कामना ह,देह! तुझसे
मनुज की मदमाती हुई
ऐ देह ! तुझमें
यद्यपि सदाचार का आँचल कहीं से
लाके, मेरी इस तप्त तनु को ढाँकने में
तिन्य द्वेष की अग्नि से जलते इस तनु को
स्नेह के पावन पयः से गर बुझाने
और संतोष का पौष्टिक बना आहार लाकर
ललकती रसना की अभिलाषा मिटाने
हाँ,तो शांति-वायु का पीयूष-वर्षी
ज्अल पिलाने में
कहीं सौहार्दता प्रियता दिखा दो

तब कहीं यह प्राण यह चेतावनी मेरी
कुछ समय तक रह सके,संभवतः संभव
अन्यथा,मेरा यहाँ तेरे पिंजर में
घुट के दम इक दिन निकल जाएगा
और फिर तू याद रखना
एक आत्मा के हनन का कुत्सित दमन का
पाप नहीं,महापाप का महाकाय-अजगर
आके मुझको लील जाएगा
तुझे खाएगा
सहसा निगल जायेगा
तब फिर तेरा भी इसी भाँति
दमन होगा
पतन होगा
मरण होगा

पड़ी फिर तू जगत की डगर में, भीषण नगर में
दीनता से बिलबिलाती-सी पुकारे
थामने को हाथ अपना
पर पुराने कृत्य अपने याद कर लेना
या फिर एक लम्बी सी ठंडी, आह भरकर
खूब रो लेना
या फिर दम तोड़ देना

क्योंकि कोई भी तो आएगा नहीं
रे पास तेरे
तुझको सहलाने
तुझे उस दम बचाने