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लिखते कटते हाथ हमारे / नईम

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लेखक: नईम

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लिखते कटते हाथ हमारे

किंतु जबां पर आंच न आती।

लिखने कहने में अंतर है

कैसे हैं ये सखा संगाती?


लिखती वही वही जो कहना चाह रहा मैं

दिल-दिमाग़ की रौ में बहना चाह रहा मैं

मन मौलाना की बरात में

कौन घराती? कौन बराती?


कहने-लिखने को दुनिया दो फांक कर रही

किए-धरे को आग लगाकर राख कर रही

परचूनी हाट नहीं थे

और न अपने राम बिसाती।


एक-एक से बड़े सयानों की ये बस्ती

डुबा रहे हैं बड़े-बड़ों के बजरे कश्ती

तेल नहीं उसकीर रहे पर

यों ही बाती