तेरी मेरी प्रीत निराली
तू चन्दा है नील गगन का
मैं पीतल की जलमय थाली!
क्या तूने देखा धारा को
सीपी मुक्ता माल पिरोते?
क्या तूने देखा बंसी को
छिद्रयुक्त हो सुर संजोते?
क्या मलयज भी सकुचाती है
धवल गिरि के सम्मुख होते?
क्यों घबराती पिया मैं तन मन
तेरा जो तुझ पर ही खोते?
तू नीलाभ गगन का स्पन्दन
मैं धूलि हूँ पनघट वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!
हो रूप गुणों से आकर्षित यदि
तेरी चेतना मुझ तक आती
कैसे फिर मेरे शून्यों को
अपने होने से भर पाती!
डोर प्रीत की तेरी प्रियतम
खण्ड मेरे है बाँधे जाती!
तेल बिना क्या कभी वर्तिका
जग उजियारा है कर पाती?
दिनकर! तेरे स्नेह स्पर्श बिन
नहीं कली ये खिलने वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!
धरा संजोती जैसे अंकुर
मुझे थेली में तू रखता
अपनी करुणा से तू ईश्वर
मेरे सब संशय है हरता!
प्राण मेरे! बन प्राण सुधा तू
पल-पल प्राणों में है झरता!
जग अभिनन्दन करता जय का
दोषों पर मेरे तू ढरता!
नहीं मुझे अवलम्बन खुद का
तू ही भरता मेरी प्याली
तेरी मेरी प्रीत निराली!
तू शंकर का तप कठोर
मैं एक कुशा माँ सीता वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!
१० दिसम्बर ०८