है अनिश्चित वह घड़ी, बैठे हुए या हम खड़े थे
याद इतना है भंवर दो, गाल पर गहरे पड़े थे
चूमती थी तब गुलाबी चूनरी का छोर धरती
ढीठ थे कुछ पर्ण सूखे, कंटकों में सिल जड़े थे
याद कुछ पक्का नहीं है . . .
ये कमल लाये कहाँ से, पूछ कर तुम हँस दिये थे
कह न कारण मैं सका, क्यों बूट कीचड़ में मढ़े थे
और हमने साथ में "सिज़लर" कहा जब रेस्तरां में
आँख तो मिल न सकीं थीं, होंठ पर, दहके बड़े थे
याद कुछ पक्का नहीं है . . .
हाजिरी में ज्यामिती की नाम बोला था तुम्हारा
हाथ मेरा उठ गया था, शर्म के फ़ूटे घड़े थे
सिर्फ़ तुमको ही पढ़ा, मैं अनुसरण करता रहा था
हार कर भी खुश हुआ ज्यों जीत के झंडे गड़े थे
याद कुछ पक्का नहीं है . . .
क्षण नहीं हैं प्रेम के बस, प्रीत जब गहरी हुई थी
तप्त होकर पीर से पक्के हुए जीवन-घड़े थे
आज गिन कर वक्त नापें अर्थहीना हो गया है
लग रहा अनगिन जनम से संग अपने पग बढ़े थे
याद कुछ पक्का नहीं है . . .
१७ अक्तूबर २००८