भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुक बिठाने के लिए / नंदकिशोर आचार्य
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:10, 16 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नंदकिशोर आचार्य |संग्रह=कवि का कोई घर नहीं होता ...)
ऊपर उतराता है जितना
अनर उतना ही ऊबा है
हँसता दिखता है जितना
उतना- यही तुक होगी- ऊबा है।
उतराने-डूबने
हँसने ऊबने की तुक मिलाने में
बेतुका ख़ुद हो जा रहा है वह
जैसे तुक तेली की कोल्हू-
पर उसमें भी एक तुक तो है
बीच में बैल कोई
बुला ले गर वह
या उसकी भूमिका
ख़ुद ही निभा ले वह।
मगर तेल कब कैसे निकलेगा
तिलों में ही नहीं है जो?
ये लो, तुक बिठाने के लिए
ख़ुद ही
बन कर तेल पिल गया है वो।