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समुद्र तट से छूते हुए जलचर / श्रीनिवास श्रीकांत

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घर
अहातों
और चबूतरों समेत
बस्तियों से हट गया है समुद्र

जल
प्रजनन
और पोत क्रीड़ाओं के बाद
फैली है दूर-दूर तक
रेत और रेत और रेत

भूल गये रेत पर
हम अपना दिशा ज्ञान
ज़मीन और आकाश के दबाव से
अनभयस्त

कहाँ गये वो सब दृष्य
उन्मुक्त ज्वार चांद के
बिखरे रंग
सतह पर अक्षितिज

न अब किलकारियां
भरते हैं
कछुआ-शिशु
न पंक्तिबद्ध सेंकते धूप
दिखाई देता है अब तो
दूर दूर तक फैला
आकाश
आकाश
और आकाश
असमापनीय यात्राएं
फैलते कॉरीडोर
उदास सन्नाटों के साथ
हम सब थे जलजीवी
पानी
प्राण
और नम हवाओं के आदी
शंख
सीपियां
और घोंघे
रेखाओं की तरह सीधी सरल
सौन्दर्य की तरह पेचदार


मगर समुद्र से अलग होने के बाद
फोड़कर हमार कछुआ खोल
निकला आए ऊँट
गद्दीदार पाँव लिये
नरम नरम रेत पर
भागने को आतुर

कछुए कहाँ ढूँढ पाते हैं
खोया हुआ समुद्र
दिखता है रेगिस्तान में
दूर से जल
जल में उलटा लटका
दूर भागता पेड़
कम होती है उम्मीद
बढ़ते फासलों के साथ
महज़ एक हाथ
देता है उम्मीद के संकेत
गंतव्य को दिशा
गति को अनुमान
रीढ़ से फिर भी
चिपका है
यह नमुराद कछुआ

देखती है पीछे मुड़कर
ऊँट बनी
कछुआ मादा
पानी की तलब में
भागते शिशुओं को
शाम के समय
रेत-टीलों पर
जब घड़ियाल तोड़ते हैं दम
मादा के जच्चास्तनों से
टपकता है दूध
और काफ़िले का सरदार
करता है खेमे की घोषणा

एक जंगल होता है
रेत में नुमाया
पीठ पर चढ़ा जलपक्षी
चौंच पर धारण करता है
मॉका फूल