Last modified on 22 अगस्त 2009, at 16:12

शेष. / केशव

प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:12, 22 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केशव |संग्रह=अलगाव / केशव }} {{KKCatKavita}} <poem>जब भी तुम आती ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जब भी तुम आती हो
द्वार पर अचानक दस्तक-सी
चली आती हो
जब जाती हो
सब कुछ समेट ले ज़ाती हो

कुछ तो होता है
प्यार के क्षणों म्रं आखिर
जो अनकहे-सा रहता है शेष
और अलग हो जाने के बाद भी
खिड़की के नीचे बढ़ते पौधे-सा
जीवित रहता है कहीं

आओ
उसकी सामर्थ्य से खुद को बड़ा करें
और छोड़ा था जहाँ से
वहीं से फिर शुरू करें