भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कभी-कभी. / केशव

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:28, 22 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केशव |संग्रह=अलगाव / केशव }} {{KKCatKavita}} <poem>मेरे पास आ बै...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे पास आ बैठती हो तुम
कभी-कभी
तुम्हारी चिड़िया जैसी भोली
नाचती आँखें
कहती हैं कुछ
मैं जान लेता हूँ कि
उनमें छिपा है
सहज निमंत्रण

मुझे पास
इतना पास बुला लेती हो
देख नहीं सकती हो आँखों से जहाँ
धीरे-धीरे
पँख खोल
फैल जाती हो मुझमें
जैसे मुंडेर चढता
धूप का अलसाया टुकड़ा


विभोर हो
जन्म देती हो तब मुझे
उड़ने लगती जो
मेरी परछाईं सहित
गुब्बारा जैसे आसमान में