अर्जुन नहीं हूं मैं भेद ही नहीं सका कभी चिडिया की दाहिनी आंख
कारणों की मत पूछिये अव्वल तो यह कि जान गया था पहले ही मिट्टी की चिडिया चाहे जितनी भेद लूं घूमती मछ्ली पर उठे धनुष से छीन लिया जायेगा तूणीर
फिर यह कि रुचा ही नहीं चिडिया जैसी निरीह का शिकार भले मिट्टी का हो मै मारना चाहूंगा किसी आदमखोर को
गुरु चाहते थे कि कुछ न देखूं उस दाहिनी आंख के सिवा और मेरी नज़र हटती ही नहीं थी बाईं आंख की कातरता से मैं तो पेडों से विलगते पत्तों को देखकर भी हो जाता था दुखी मुझे कोई रुचि नहीं थी दोस्तों से आगे निकल जाने की भाई तो फिर भाई थे
मै तो सजा कर रख देना चाहता था उस मिट्टी की चिडिया को पिंजरे में कि आसमान में देख सकूं एक और परिंदा मै उसकी आंखों में भर देना चाहता था उमंग स्वरों में लय, परों में उडान
और अब भी शर्मिंदा नहीं हूं अपनी असफलता से बल्कि ख़ुश हूं कि कम से कम मेरी वज़ह से नहीं देना पडा किसी एकलव्य को अंगूठा।