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साँझ मेरे गाँव की / साग़र पालमपुरी
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ओढ़ा के लाल चूनरी क्षितिज को धूप-छाँव की
परी-सी नाचने लगी है साँझ मेरे गाँव की
उभर रही हैं नीड़ -नीड़ पंखियों की बोलियाँ
गवाल-बाल ढोर हाँकते करें ठिठोलियाँ
चली हैं गगरियाँ उठाए गोरियों की टोलियाँ
झनक उठी झनन-झनन-सी झाँझरें हैं पाँव की
परी-सी नाचने लगी है साँझ मेरे गाँव की
तिमिर को चाँदनी के ताल में खँगालती हुई
असंख्य दीप अपनी गोद में सँभालती हुई
रसीले लोक-गीतों की धुनें उछालती हुई
निखारती है जिनको मधुर बाँसुरी हवाओं की
परी-सी नाचने लगी है साँझ मेरे गाँव की
खिला जो चन्द्रमा तो आसमान जगमगा उठा
मधुर सुहागरात का है मौन गुनगुना उठा
किसी उदास मन-का तार झनझना उठा
किसे पता कि आस है यह कितनी आत्माओं की
परी-सी नाचने लगी है साँझ मेरे गाँव की