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घर का काम / सुदर्शन वशिष्ठ
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आज भी भेड़ों का रेवड़ लगी
स्कूल जाती लड़कियाँ
सिर नीचे दिए एक के पीछे दूसरी
कोई गडरिया है जो हाँक रहा है उन्हें।
स्कूल में दिया घर का काम
बदल जाता है घर के काम में
बोझा नहीं है भाई
चाकरी नहीं है झाड़ू पोचा
समझा जाए चाहे प्यार एक साजिश।
भाई को सम्भालती
बर्तन माँजती कपड़े धोती
चलते हण्डे पढ़तीं
हर काम में लड़का होती लड़कियाँ
सिर में सपनों का फूल सजाए
सुबह तैयार होकर झुंड में शामिल होती हैं।