भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ख़तरा / सुदर्शन वशिष्ठ
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:52, 1 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ |संग्रह=अनकहा / सुदर्शन वशिष्ठ }} <...)
खड़े बाज़ार की गलियों में
गाँव की सुनसान चौपालों में
गुपचुप बातं करते
खतरा बनते जा रहे।
पढ़ते रहते सालों
महा विश्व विद्यालयों में
खतरा बनते जा रहे।
पढ़ें दस जमा दो
या पढ़ बैठें सोलह से अधिक
खतरा बनते जा रहे हैं।
बोल्ड हों या बेहद शर्मीले
खतरा बनते जा रहे।
बेचते मूँगफली चाय
या बाँटते पोस्टर पम्फलेट
खतरा बनते जा रहे।
जिनके पास हैं सवाल ही सवाल
जिन्हें न है काम न लगाम
जिनका छोटा होता कपड़ा हर साल
खतरा बनते जा रहे।
निनकी जेब में है चाकू
दिमाग़ में बारूद
हाथ में माचिस
खतरा बनते जा रहे।