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दिल कि है तिशनगी से तरसा है / परमानन्द शर्मा 'शरर'

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दिल कि है तिश्नगी से तरसा है
यूँ तो कहने को अब्र बरसा है

वाय दीवानगी जो तूने दी
अब तो वीराना लगता घर-सा है

तेरे दर पर झुकी है जब से जबीं
मुझको हर दर तेरा ही दर सा है

दिल में‍ आता है कह दूँ जी की बात
तू न माना तो एक डर-सा है

मान न मान बेरुख़ी में तेरी
कहीं ग़ैरों का कुछ असर-सा है

अल्लाताला का अशरफ़ुल्मख़लूक
आदमी अब भी जानवर-सा है

दिले-पामाल की न पूछ ‘शरर’
एक उजड़ा हुआ नगर-सा है