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पुनर्जन्म के पार / मनोज कुमार झा
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कट-कट जुड़ती रही नेहनाल
अकेला न होने दिया
कभी बारिश तो कभी धूप
धरती देती रही छाया उगने भर भूमि
तुम्हारे पंख खोलने का स्वर बादलों में अब भी बजता है
धूप में अब भी दिपता है वसन्त को दिया तुम्हारा कंगन
कभी बादल हो रहा समुद्र हुआ
तो कभी समुद्र हो रहा बादल
समय के हिलते हाथ में दिखते रहे सूख गई नैयों के शंख-पद्म
पियरा रहे पत्ते के धीरज से भी हरा हमारा धीरज
मगर कब तक ढोते रहें पिछले जन्मों के मुकुट
आओ गल जाएँ इस हिमालय में