भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सांझ (कविता) / जगदीश गुप्त
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:50, 14 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगदीश गुप्त |संग्रह= }} <Poem> जिस दिन से संज्ञा आई छा ...)
जिस दिन से संज्ञा आई
छा गई उदासी मन में,
ऊषा के दृग खुलते ही
हो गई सांझ जीवन में।
मुँह उतर गया है दिन का
तरुओं में बेहोशी है,
चाहे जितना रंग लाए
फिर भी प्रदोष दोषी है।
रवि के श्रीहीन दृगों में
जब लगी उदासी घिरने,
संध्या ने तम केशों में
गूंथी चुन कर कुछ किरनें।
जलदों के जल से मिल कर
फिर फैल गए रंग सारे,
व्याकुल है प्रकृति चितेरी
पट कितनी बार सँवारे।
किरनों के डोरे टूटे
तम में समीर भटका है,
जाने कैसे अंबर में
यह जलद पटल अटका है।
रश्मियाँ जलद से उलझीं
तिमिराभ हुई अरुणाई,
पावस की साँझ रंगीली
गीली-गीली अलसाई।