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सब्र के एक दो थे जज़ीरे बचे / परमानन्द शर्मा 'शरर'

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सब्र के एक दो थे जज़ीरे<ref>टापू</ref> बचे
ग़म के तूफ़ाँ उन्हें भी बहा ले गए

चोट से बच न पाया कोई अहले-दिल
जिस तरफ़ तेरी नज़रों के भाले गए

हुस्न वालों की तारीफ़ होती रही
इश्क़ वालों पे कीचड़ उछाले गए

बा-वफ़ाओं के हिस्से रहीं तल्ख़ियाँ
नामो-इनआम सब बेवफ़ा ले गए

हम बज़िद हो के इसरार करते रहे
वो हर इसरार चुपचाप टाले गए

काली रातों में जिन के रहे मुन्तज़िर<ref>प्रतीक्षारत</ref>
किस तरफ़ सुबह के वो उजाले गए

कहते हैं रंग पर बज़्म आई नहीं
जब से हम बज़्म से हैं निकाले गए

क्या ये कलजुग की है रीत ऐ दोस्तो!
फूल मसले गए नाग पाले गए

शायरी का ये आलम हुआ ऐ ‘शरर’
करने वाले गए, सुनने वाले गए

शब्दार्थ
<references/>