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बरसों से / तरुण भटनागर

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जिनमें से किसी एक को,
बहुत ध्यान से देखने पर भी आंख पकड़ नहीं पाती है।

बरसों से,
तुम आैर मैं,
लोहे की पटरी पर टरेन का पिहया,
लोहे पर लोहा,
चुकता नहीं,
पंचर होकर रुकता नहीं,
एक सी करतल धुन,
एक सा सिद्धांत,
कोई प्रतिवाद नहीं।

तुम आैर मैं,
दीवार पर एक तस्वीर,
बरसों से इस तरह लटकी तस्वीर,
कि,
आज अगर हटा दी जाए,
तो सताएगा दीवार का बैरंग खालीपन,
सब पूछेंगे तस्वीर कहां गई।

बरसों से,
तुम आैर मैं,
हवा में पत्ते का कंपन,
अकेले का खेल,
सब लोगों से इस तरह छुपा,
कि कोई ध्यान भी नहीं देता,
इतना सामान्य,
आैर बहुत पुराना ़ ़ ़।

पर कितना अजीब है,
कि बरसों से,
मैंने आैर तुमने,
ज़्यादा बातें नहीं कि,
अक्सर हम चुप ही रहे,
अपने-अपने कामों में डूबकर।
क्या मेरे जीवन का खालीपन इसी रास्ते से आया है?
जब हम नये-नये थे,
तब कितना बतियाते थे हम,
तब लगता था,
कभी ख़त्म नहीं होंगी बातें ़ ़ ़।
पर फिर भी जाने कैसे तबसे आजतक,
नहीं बदल पाया है कुछ भी।
मुश्किल रहा है,
तुमसे दूर रहना,
बरसों से।