भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पहला मानसून / तरुण भटनागर

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:05, 14 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तरुण भटनागर }} <poem> १ उसका इंतजार था। हमारी इच्छा, ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज



उसका इंतजार था।
हमारी इच्छा,
हमारा स्वाथर्,
सो किया उसका इंतजार।
पर हजारों मील दूर से,
समुदर् की नम आदर्र् हवा,
काले घने बादल,
चक्रवात,
घूमते बवण्डर,
वह कभी भी इसलिए नहीं लाया,
कि हम उसका इंतजार करते हैं।
बस एक नियम है,
मानसून के आने का नियम।
वह नहीं आता है,
गमीर् से झुलसे पेड़ों के लिए,
महीनों से चुप आंगन की टीन की छत के लिए,
धूल में पड़े बीजों के लिए,
आकाश की आेर मंुह कर,
बंूदों के स्पशर् से खिलखिलाने वाले चेहरों के लिए,
घर की नंगी दीवार के लिए,
जो उसे देख हड़बड़ाती हुई काही की साड़ी पहन लेती है,
  ़ ़ ़ ़ ़

अगर वह इनके लिए आता,
तो क्या वह कभी जा पाता?
उसका आना,
उसका जाना,
हमसे सरोकार बिना उसका अपना है।
वह,
धरती आकाश,
किसी का भी साथी नहीं।
वह बरसकर खत्म हो जायेगा,
बिना किसी हिसाब किताब के,
क्योंिक ऐसा ही नियम है।



मैंने बहुत लंबी यात्रा की है।
बंबई से जयपुर, फिर दिल्ली, फिर झांसी, फिर कलकत्ता ़ ़ ़
आैर वह बादल,
पूरे समय मेरे साथ रहा है।
एक सा फुरफुराता,
एक सा बरसता, गरजता ़ ़ ़।
देखने का दोष नहीं है,
वह वास्तव में एक सा रहता है।
वह भेद नहीं कर पाया है -
गंगा आैर सीक्यांग में,
हिन्दी, तिमल, ़ ़ ़आैर फिलीपीनो में,
दिल्ली आैर हांगकांग में,
नािडर्क आैर मंगोलाइट में,
कुतार् आैर बाली के खुले वक्षों में,
सेण्ट थामस माउंड आैर अंकोरवाट के शिव में,
नंगे आेंग, जावा आैर सिंगापुर के सभ्य सुसंस्कृत में,
मुझमें आैर रिजया की बकरी में,
हरी घास आैर सूखे पत्तों में,
 ़ ़ ़़ ़ ़ ़

वह बहुत आगे निकल गया है,
बहुत आगे,
जहां हम नहीं ़ ़ ़।
तभी तो,
बम्बई, जयपुर, दिल्ली, झांसी, कलकत्ता तक,
मैं उसे पछाड़ नहीं पाया।
शायद,
पूरी धरती,
आैर पूरे आकाश की,
यात्रा करने के बाद भी,
मैं उसे पछाड नहीं पाता।



वह काला बादल,
बदल सकता है -
पूरी हवा,
कड़वा अधूरा मूड,
पुराना दृश्य,
पूरी जमीन,
अंधेरे में कानों में कहलवा सकता है,
बहुत दिनों से दबी बात,
 ़ ़ ़ ़ ़ ़ ़

पर कुछ नहीं कर पाता है,
आकाश आैर चांद तारों का,
बस उन्हें ढं़क देता है।
ढंक देता है,
बरसों से जागते चांद तारों को,
हमेशा व्यस्त आकाश को।
ताकि उकसाये ढंकी चांदनी,
क्या होती कल से ज्यादा चमकाीली?
क्या हमेशा की तरह ठण्डी?
क्या उसमें ज्यादा चमकते वरबीना के फूल?
 ़ ़ ़ ़ ़़

ताकि दिख ना पाये,
मनचाहा आकाश,
आैर वे चांद तारे,
जो मुझे घसीटते हैं,
मेरी यादों में।
यंू,
वह मुझे,
बार-बार बचाता है।



वह समुदर् से आता है,
जमीन के लिए।
वह बहुत ऊपर तैरता है,
नीचे के लिए।
वह दूर दिखता है,
हथेली पर गिरती बंूदों के लिए।
वह खूब गरजता है,
भीतर की चुप्पी के लिए।
वह ठण्डा है,
चंपा को भिगोकर आग के लिए।
वह सूरज को ढं़क देता है,
मेरे कमरे की ठण्ड के लिए।
वह दूर चमकता है,
हाथ को हाथ सुझाने के लिए।