Last modified on 15 सितम्बर 2009, at 10:27

नये लुभावने मंज़र / माधव कौशिक

प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:27, 15 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=माधव कौशिक |संग्रह=सूरज के उगने तक / माधव कौशिक }} <...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

नये लुभावने मंज़र मगर उदास नहीं।
बहुत सलीस हैं पत्थर मगर उदास नहीं।

न जाने कौन हमें लूटता है राहों में,
हमारे शहर का रहबर मगर उदास नहीं।

ज़ुबान काट कर रख आए अपने हाथों से,
अजीब बात है शायर मगर उदास नहीं।

किये हैं कत्ल कई फूल,पत्तियाँ कलियाँ.
तुम्हारे हाथ का खंजर मगर उदास नहीं।

ज़मीन आग में झुलसी हुई है सदियों से।
उदास चाँद है अम्बर मगर उदास नहीं।

फटी हो लाख भले हो गई बहुत मैली,
अभी तलक मेरी चादर मगर उदास नहीं।

हमारी आह को सुनते ही चीख़ उठता था,
वही है आज मेरा घर मगर उदास नहीं।