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स्नेह-निर्झर बह गया है / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
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लेखक: सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
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स्नेह-निर्झर बह गया है! रेत ज्यों तन रह गया है। आम की यह डाल जो सुखी दिखी, कह रही है-"अब यहाँ पिक या शिखी नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी नहीं जिसका अर्थ-" जीवन दह गया है। दिये हैं मैने जगत को फूल-फल, किया है अपनी प्रभा से चकित-चल; पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल- ठाट जीवन का वही जो ढह गया है। अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा, श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा। बह रही है हृदय पर केवल अमा; मै अलक्षित हूँ; यही कवि कह गया है।