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चुकने दो / रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

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चुक जाने दो चिंता के क्षमाहीन पथ को
चुक जाने दो पूर्वांतर की सब राहों को
थी कहीं लौट आने की तुमने केवल तब
चुकने दो पहले मुद्रित व्यथा अथाहों को

थी कही लौट आने की तुमने तृप्तिजयी!
जब भ्रमर-कोप की मधुगाथा पूरी हो ले
पुछ जाने दो रस के दिक्भूले चिह्नों को
चुकने दो विद् शब्द सब बिना अर्थ खोले

चुकने दो गत के छल, तिलिस्म सब आगत के
गंतव्य पिपासा के, अशांति के स्तूप प्रबल
भटके यायावर सपनों का गीतिल अनुशय
कुहराई जागृति का उदास धुंधला मृगजल

चुकने दो मनवंतर की खोहों में सिमटे
सब दृश्य, गूँजते स्रोत आयु के साथ बहे
थी कही लौट आने की तुमने मुक्तिजयी!
जब सब चुक जाए, केवल चुकना शेष रहे!