चिरैया धीरे धीरे बोल / अजय पाठक
चिरइया, धीरे-धीरे बोल!
अंतर्मन के अध्यायों के पन्नों को मत खोल।
अभी-अभी तो अपनी आँखें प्राची ने खोला है,
मलयानल है, मन का तरुवर अभी नहीं डोला है।
अरी निर्दयी! अभी हृदय में पीड़ा तो मत घोल।
चिरइया, धीरे-धीरे बोल!
विरह-वेदना में ही गुंफित तेरा गुंजित स्वर है,
सत्य सनातन यह भी लेकिन, सुख भी तो नश्वर है।
क्षण भर का जीवन है अपनी! बातों में रस घोल।
चिरइया, धीरे-धीरे बोल!
उगते सूरज को अंबर में थोड़ा तो चढ़ने दे,
पीडा की लंबी परछाई बढ़ती है बढ़ने दे,
धूप-छाँव के चलते क्रम को अनुभव से ही तोल।
चिरइया, धीरे-धीरे बोल!
तेरा यह आलाप हृदय को बेकल कर जाता है,
मन के सूखे अंतःसर में सागर भर जाता है,
महाप्रलय के द्वार-अबूझे-शब्दों से मत खोल।
चिरइया, धीरे-धीरे बोल!
झरते वन का सूखा तरुवर अपना ठौर-ठिकाना,
ऊपर से तेरा यह निष्ठुर विरही तान सुनाना,
नयन-कोर से झर जाते हैं रतन कई अनमोल।
चिरइया, धीरे-धीरे बोल!