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समर्पित शब्द की रोली / अजय पाठक

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समर्पित शब्द की रोली,
विरह के गीत का चंदन।

हमारे साथ ही रहकर,
हमीं को ढो रहा कोई।

नयन के कोर तक जाकर,
घुटन को धो रहा कोई

क्षितिज पर स्वप्न के तारे,
कहीं पर झिलमिलाते हैं,

क्षणिक ही देर में सारे,
अकिंचन डूब जाते हैं।

वियोगी पीर के आगे,
नहीं अब नेह का बंधन।

निशा के साथ ही चलकर,
सुहागन वेदना लौटी।

सृजन को सात रंगों में,
सजाकर चेतना लौटी।

कसकती प्राण की पीड़ा,
अधर पर आ ठहरती है,

तिमिर में दीप को लेकर,
विकल पदचाप धरती है।

हृदय के तार झंकृत हैं,
निरंतर हो रहा मंथन।