बंधक सुबहें 
गिरवी अपनी 
साँझ दुपहरी है । 
बड़ी देर तक रात व्यथा से 
कर सोये संवाद, 
रोटी की चिंता ने छीना 
प्रातः का अवसाद, 
भूख मीत है जिससे 
अपनी छनती गहरी है । 
रक़म सैकड़ा लिया कभी था 
की उसकी भरपाई, 
सात महीने किया मज़ूरी 
तब जाकर हो पाई,
कुछ बोलें तो अपने हिस्से 
कोर्ट कचहरी है । 
टूटी मड़ई जिसको अपना 
घर कह लेते हैं, 
किसी तरह कुछ ओढ़-बिछाकर 
हम रह लेते हैं, 
जीवन जैसे टूटी-फूटी 
एक मसहरी है ।
मालिक लोगों के कहने पर 
देते रहे अँगूठा, 
वक़्त पड़ा तो हम ही साबित 
हो जाते हैं झूठा,
निरर्थक है फ़रियाद 
व्यवस्था अंधी-बहरी है ।